चम्बा की खूनी लोहड़ी जहाँ कभी होता था एक खून माफ़ चंबा
चम्बा की खूनी लोहड़ी जहाँ कभी होता था एक खून माफ़
चम्बा : हिमाचल प्रदेश अपने आप में ही विविधताओं का प्रदेश है। एक ओर से दूसरी ओर पहुँचते पहुँचते न केवल हमारी बोली और भाषा बदल जाती है अपितु हमारे रीति रिवाज़ भी एक दूसरे से अलग प्रतीत होते हैं। परन्तु फिर भी हिमाचल एक है ओर हिमाचल वासी एक हैं। प्रदेश के अलग अलग हिस्सों में मनाये जाने वाले त्योहार में से कुछ ऐसे हैं जिन्हे मनाने के तरीके बहुत विभिन्न हैं, बहुत अध्भुत हैं , आज ऐसे ही एक त्यौहार के बारे में आपको बताएँगे जो शायद मनाया तो पुरे उत्तरी भारत में जाता है परन्तु केवल इस स्थान पर इस में खूनी झड़प होती है।
हम बात कर रहे हैं लोहड़ी की, जिसमे अमूमन केवल प्रज्वलित अग्नि में मूंगफली , रेवड़ी इतियादी डाली जाती है और सुख समृद्धि की कामना की जाती है लेकिन चम्बा की लोहड़ी एक खुनी संघर्ष में बदल जाती है , या ऐसा कहें की बदल जाती थी, समय के साथ यह अब प्रतीकात्मक होता जा रहा है।
ऐसा भी बताया जाता है रियासत काल में इस दौरान ” एक खून माफ़ हुआ करता था “। जनश्रुति के अनुसार ऐसा बुरी शक्तियों को दूर करने के लिए किया जाता था। लोहड़ी की आधी रात को सदियों से चली आ रही राज मुशहरा की परंपरा है जिसमे चम्बा शहर को 15 मढ़ियों में बांटा गया है जिसमे 13 मढ़ियाँ महिला मानी जाती हैं और एक मढ़ी , सुराड़ा वाली, जिसे राज मढ़ी की संज्ञा दी गयी है , पुरुष मानी जाती है और चौंतड़ा मढ़ी को बजीर मढ़ी, पुरुष मढ़ी का दर्जा दिया गया है।
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होता कुछ यूँ है की इस दौरान पुरुष मढ़ी, अपना प्रतीक मशाल ले कर सभी मढ़ियों में जाते हैं और वहां अपना अधिपत्य स्थापित करते हैं , इसी दौरान आपस में छीना छपटी और लड़ाइयां भी होती हैं। कहा जाता है की रियासत काल के दौरान ये किसी की इस दौरान मृत्यु हो जाये तो वो खून माफ़ कर दिया जाता था।
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पहले राज मड़ी से जब मशाल उठाई जाती थी तो पशु बलि दी जाती थी लेकिन 2015 में उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद अब यहाँ पर पशु बलि पर रोक है। यह परंपरा 2015 में अपने 441 वे साल में पूरी नहीं की गयी लेकिन उसके बाद से लगातार चल रही है। 1573 में राजा प्रताप सिंह ने सुराड़ा को पुरुष राजमढ़ी का दर्जा दिया था। इसके साथ सपड़ी मढ़ी, नंद मढ़ी, बजीर मढ़ी (चौंतड़ा) जनसाली मढ़ी, चौगान मढ़ी, बनगोटू मढ़ी, ध्रोबी मढ़ी, झीर मढ़ी, चरपट मढ़ी, हटनाला मढ़ी, रामगढ़ मढ़ी, खरूड़ा मढ़ी व नर्सिंग मढ़ी से होकर मशाल जाती थी।
आज भी यह परंपरा जीवित है और युवाओं द्वारा इसका निर्वाहन किया जाता है।
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